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‘कल्पना’ और ‘कलम’

कल्पना और कलम
कल्पना और कलम
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अक्सर मैंने लम्बे अंतराल के बाद कविता लिखी | कई बार तो २-३ साल बाद ही कोई कविता लिख पाया |
इस बीच में, मन में विचार आते पर आलस्य की वजह से उन्हें लिखता नहीं | कभी कलम हाथ में लेकर बैठता कि आज कुछ लिखूंगा पर कोई अच्छा ख्याल ही न सूझता | फिर मैंने इसी परिस्थिति पर ही एक कविता लिखी जो नीचे प्रस्तुत है |

कल्पना’ और ‘कलम’

मुझ कवि कि दो पत्नियाँ, ‘कल्पना’  और ‘कलम ‘
न जाने क्यूँ मुझसे ये रूठ गयीं हैं ?
कल्पना कि वो लड़ियाँ जो पिरोनी थीं कलम ने
जंग खाती रहीं कबसे, अब टूट गयीं हैं |

न जाने कौन सी है दृष्टि इस बेनयन कलम में,
रही घूरती हमेशा मेरी-कल्पना के मिलन को |
अब रूठ यूँ गयी, कि निर्जीव सी पड़ी है
नहीं पृष्ठ पर सुलाती अपनी सौत के ललन को ||

कहती, “मुझे ये धाय रूप, हे सजन क्यूँ दिया है?
मुझ में क्या कमी जो निज ललन न दिया है ?”
कैसे बताऊँ उसको, है यशोदा गरिमामयी
उस देवकी से ज्यादा, जिसने कृष्ण जन दिया है |

जो मेरे प्यार में कलम ये जलन भूल भी गयी, तो तुनक कल्पना है जाती |
बदन कलम का ज्यों छुआ, भड़क कल्पना है जाती |
उसको मनाने  को उसमें डूबना ही पड़ेगा
तो उभर कलम-जलन आती |

ये जो दो बीवियों की आपस की है जलन
इसी से आज-कल, सिर्फ एक का है चलन |
पर एक से काम ही नहीं चलता,
मुझ कवि में जाने ये कैसी ही है अगन ?
पर जो तृप्त हो सकी ये कभी
तो निश्चित किसी गीतांजलि का है जनन ||

‘प्रदीप’

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